Alankaar(Figure of speech)अलंकार
अलंकार(Figure of speech) की परिभाषा-
जो किसी वस्तु को अलंकृत
करे वह अलंकार कहलाता है।
दूसरे अर्थ में- काव्य
अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।
संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ
से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।
अलंकार का शाब्दिक अर्थ
है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी
प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
जिस प्रकार सुवर्ण आदि के
आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।
संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण)
अलंकार कहलाते हैं।
रस की तरह अलंकार का भी
ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और
संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है।
जिस प्रकार आभूषण स्वर्ण
से बनते है, उसी प्रकार अलंकार भी सुवर्ण (सुन्दर वर्णों)
से बनते है। काव्यशास्त्र के प्रारम्भिक काल में 'अलंकार' शब्द का प्रयोग
इसी अर्थ में हुआ है। इसके अतिरिक्त, प्राचीन काल में
इस शब्द का एक और अर्थ लिया जाता था। संस्कृत में, 'अलंकार' शब्द का व्यवहार
साहित्य के शास्त्रपक्ष में हुआ है। पहले अलंकारशास्त्र कहने से रस, अलंकार, रीति, पिंगल इत्यादि
समस्त काव्यांगों का बोध होता था। हिन्दी में संस्कृत के ही अनुसरण पर महाकवि
केशवदास ने 'अलंकार' शब्द का प्रयोग
अपनी 'कविप्रिया' में इसी व्यापक अर्थ में किया है।
अलंकार का महत्त्व
काव्य में अलंकार की
महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट
के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर
अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के
प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने
भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।
जब तक हिन्दी में
ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा।
आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और
असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी
की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की
सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग
अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।
अलंकार कवि को सामान्य
व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग
करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी
देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य
है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।
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