रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-
(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति
श्लेष
वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद
श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(i) भंगपद
श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-
पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती
नहीं ?
उत्तर- निज कामिनी को
प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती
कहीं ?
यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा
है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़
गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो
चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही
मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का
उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।
''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे
'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना
मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही
दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को
अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस
नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के
कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा
श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति
का उदाहरण इस प्रकार है-
एक कबूतर देख हाथ में
पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।
यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ
से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ
गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर
की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।
अपने प्यारे कबूतर के उड़
जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर
वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना
तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से
अभंगश्लेष हुआ।
(2)काकु वक्रोक्ति- कण्ठध्वनि की
विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र
कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है।
किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।
काकु वक्रोक्ति का उदाहरण
है-
लिखन बैठि जाकी सबिहि, गहि गहि गरब
गरूर।
भए न केते जगत के चतुर
चितेरे कूर।।
यहाँ उच्चारण के ढंग
अर्थात काकु के कारण 'भए न केते' (कितने न हुए) का
अर्थ 'सभी हो गए' हो जाता है।
इस प्रकार वक्रोक्ति में
चार बातें होनी आवश्यक हैं-
(क) वक्ता की
उक्ति।
(ख) उक्ति का
अभिप्रेत अर्थ।
(ग़) श्रोता द्वारा
उसका अन्य अर्थ लगाया जाना।
(घ) श्रोता द्वारा
लगाए अर्थ का प्रकट भी होना।
वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:- दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है।
श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह
चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर
इतना ही है।
श्लेष और यमक में भेद:- श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ
एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के
लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ
एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में
भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।
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